NCERT कक्षा 10 हिंदी पाठ्यक्रम को कृतिका,क्षितिज, संचयन और स्पर्श में बांटा गया हैं इन सभी पुस्तकों में हिंदी के विभिन्न विधाओं का ज्ञान समाहित हैं जिसके अध्ययन से विद्यार्थियों को हिंदी भाषा से जुड़ी अमूल्य जानकारी प्राप्त होगी।
यदि विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम को समझने में दिक्कत आये तो उसके लिए आकाश संस्थान द्वारा बनाया गया कक्षा 8 हिंदी एन.सी.इ.आर.टी (NCERT) हल इस समस्या में उनकी सहायता करेगा। प्रश्नों के हल का यह संग्रह आकाश संस्थान के अनुभवी शिक्षकों द्वारा किया गया है तथा इसकी भाषा बेहद सरल रखी गयी है।
बच्चे का माँ से ममता का रिश्ता होता है। पिता के साथ स्नेहाधारित रिश्ता होता है। इसलिए बच्चा अपने पिता का स्नेह प्राप्त करके आनंदित हो सकता है पर उसमें माँ के प्रेम के बराबर सुख नहीं मिलता। भोलानाथ और उसके साथी आस- पास उपलब्ध चीजों से खेलते थे। वे मिट्टी के टूटे-फूटे बर्तन, धूल, कंकड़-पत्थर, गीली मिट्टी और पत्तियों से खेलते थे। वे समधी को बकरे पर सवार करके बारात निकालने का खेल खेलते थे। कभी-कभी लोगों को चिढ़ाते थे। पाठ के अंत में दिखाया गया है कि भोलानाथ सांप से डरकर माता की गोद में आता है, माँ अपने बेटे की हालत देखकर दुखी होती है और उसे अपने आंचल में छिपा लेती है। इस प्रकार जबकि उसका अधिक समय पिता के साथ व्यतीत होता है विपदा के समय उसे माँ की गोद में ही शांति मिलती है। क्योंकि पिता से डांट खाने की संभावना थी पर माँ की गोद में हर स्थिति में प्रेम, ममता और दुलार मिलना निश्चित था।
इंग्लैंड की रानी एलिज़ाबेथ अपने पति के साथ हिंदुस्तान के दौरे पर आ रही थीं। लेकिन सेक्रेट्रिएट से पता चलता है कि जॉर्ज पंचम की लाट से नाक गायब है तो सब अधिकारियों में चर्चा होती है और यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि रानी के आने से पहले लाट पर नाक फिर से लगवानी चाहिए। मूर्तिकार उनसे वह पत्थर लाने के लिए बोलता है जिससे मूर्ति बनी थी । पत्थर न मिलने पर पूरे देश की मूर्तियों की नाक नापी जाती हैं परन्तु वे सभी जॉर्ज पंचम की नाक से बड़ी निकलती हैं। अंत में फैसला होता है कि चालीस करोड़ में से किसी एक की ही असली नाक लगा दी जाए। आखिर जॉर्ज पंचम की लाट को बिना नाक के कैसे छोड़ा जा सकता था। अख़बारों में खबर आयी कि जॉर्ज पंचम कि लाट पर नाक लग गयी है। परन्तु उस दिन के अखबार में कहीं किसी उद्घाटन की, किसी भेंट की, हवाई अड्डे पर किसी स्वागत सभा की, कोई खबर नहीं थी, अखबार खाली थे।
मधु कांकरिया जी ने इस पाठ में अपनी सिक्किम की यात्रा का वर्णन किया है। एक बार वे अपनी मित्र के साथ सिक्किम की राजधानी गंगटोक घूमने गयी थीं। वहां से वे यूमधांग, लायुंग और कटाओ गयीं। उन्होंने इस पाठ में सिक्किम की संस्कृति और वहां के लोगों के जीवन का विस्तार से वर्णन किया है। पाठ में हिमालय और उसकी घाटियों का भी सुंदर वर्णन किया गया है। लेखिका वहां की बदलती प्रकृति के साथ अपने को भी बदलता हुआ महसूस करती हैं। वे कभी प्रकृति प्रेमी, कभी एक विद्वान, संत या दार्शनिक के समान हो जाती हैं। इस पाठ में प्रदूषण के बारे में बताया गया है। उन्होंने इस पाठ का नाम, एक नेपाली युवती की बोली हुई प्रार्थना से लिया । साना-साना हाथ जोड़ी का अर्थ है – छोटे-छोटे हाथ जोड़कर। इसमें हमें सिक्किम के लोगों की कठिनाइयों के बारे में भी पता चलता है।
प्रस्तुत कहानी में लेखक ने टुन्नू और दुलारी जैसे किरदारों के माध्यम से उस वर्ग-विशेष को उभारने की कोशिश की है, जो समाज में हीन या उपेक्षित निगाह से देखे जाते हैं दोनों किरदारों को कजली गायन में महारत हासिल है। इन दोनों का मिलन एक सभा में हुआ था जहां टुन्नू को एहसास हुआ की वह दुलारी से प्रेम करता है। दुलारी ने टुन्नु की दी हुई साड़ी को अस्वीकार कर दिया और यह देखकर टुन्नु वहां से दुखी होकर चला गया। दुलारी ने विदेशी साड़ियों का बहिष्कार किया जिससे उसकी देशभक्ति की भावना प्रकट होती है। जब उसे टुन्नु की मृत्यु की खबर मिली तब उसने टुन्नु की दी हुई साड़ी पहन ली और अगले दिन सभा में अपना दुख व्यक्त करते हुए उसने गाया – ‘एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा! कासों मैं पूछूं?’ इस कथन का अर्थ है कि इसी स्थान पर मेरी नाक की लौंग खो गई है, मैं किससे पूछूं? क्योंकि इसी स्थान पर टुन्नू ने अपने प्राण त्याग दिए थे।
लेखक ने इस पाठ के माध्यम से प्रश्न उठाया है की मनुष्य किन कारणों से लिखता होगा। एक कारण उसको लिखने का यह लगता है कि वह स्वयं को जानना चाहता है, दूसरा कारण आर्थिक स्थिति को संभालने के लिए लिखना चाहता है, तो तीसरा कारण उसे संपादक के द्वारा आग्रह करने पर लिखना पड़ता है। और कभी वह अपनी आंतरिक विवशता को कम करने के उद्देश्य से लिखता है। यह बहुत कारण है जो उसे लिखने पर विवश करते हैं। हिरोशिमा की घटना का उल्लेख कर वह अपनी आप बीती सुनाना चाहता है की वह कई बार मन व दिल से अनुभव की गई घटना को कविता के रूप में या कहानी के रूप में लिख कर अपने अंदर की अनुभूति को समाज के समक्ष रख कर उनको भी इसका प्रत्यक्ष दर्शी बनाना चाहता है। ताकि जो दर्द उन लोगों ने महसूस किया है, वे और भी महसूस कर सकें। उसके अनुसार लेखक का यह कर्तव्य होता है और उसके लिखने का यही मुख्य कारण भी।
कथा वाचक और हरिहर काका की उम्र में काफी अंतर होने के बावजूद वह उनका पहला मित्र था। महंत और हरिहर काका के भाई ने अपना लक्ष्य साधने के लिए हरिहर काका के साथ बुरा व्यवहार करा। हरिहर काका को जब यह असलियत पता चली कि सब लोग उनकी जायदाद के पीछे पड़े हैं तो उन्हें उन सब लोगों की याद आई जिन्होंने अपने परिवार के मोह में आकर अपनी जमीन उनके नाम कर दी थी और अपने अंतिम दिन तक कष्ट भोगते रहे। वे लोग भोजन तक के लिए तरसते रहे। इसलिए उन्होंने सोचा कि ऐसा जीवन व्यतीत करने से तो एक बार मरना अच्छा है। उन्होंने तय किया कि जीते जी किसी को जमीन नहीं देंगे। वे मरने को तैयार थे। इसीलिए लेखक कहते हैं कि अज्ञान की स्थिति में मनुष्य मृत्यु से डरता है परन्तु ज्ञान होने पर मृत्यु वरण को तैयार रहता है।
कहानी सपने के से दिन गुरदयाल सिंह के बचपन का एक स्मरण है। वह अपने स्कूल के दिनों को याद करते हैं। वह ऐसे गाँव से थे जहाँ कुछ ही लड़के पढाई में रुचि रखते थे, कुछ बच्चे स्कूल जाते नहीं थे तो कुछ बच्चे बीच में ही स्कूल छोड़ देते थे। पूरे साल में सिर्फ एक दो महीने ही पढाई होती और लम्बा अवकाश होता। स्कूल न जाने का एक बड़ा कारण था मास्टर से पिटाई का भय । उन्हें अकसर ही शिक्षकों से मार खाना पड़ता। उनके हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा नरम दिल के थे जो बच्चों को सजा देने में यकीन नहीं रखते थे पर उन्हें याद है अपने पीटी सर जो काफी सख्त थे। एक दिन पीटी मास्टर ने गृहकार्य न करने पर सबको मुर्गा बनने का दंड दिया। जब हेडमास्टर शर्मा जी ने यह देखा तो बहुत गुस्सा हुए और उन्हें निलंबित करने को एक आदेश पत्र लिख दिया। उसके बाद पीटी मास्टर कभी स्कूल न आए।
टोपी शुक्ला दो अलग-अलग धर्मों से जुड़े बच्चों और एक बच्चे व एक बुढ़ी दादी के बीच स्नेह की कहानी है। इफ़्फ़न और टोपी शुक्ला दोनों गहरे दोस्त थे। एक दूसरे के बिना अधूरे थे परन्तु दोनों की आत्मा में प्यार की प्यास थी। टोपी हिंदू धर्म का था और इफ़्फ़न की दादी मुस्लिम। परन्तु जब भी टोपी इफ़्फ़न के घर जाता दादी के पास ही बैठता। उनकी मीठी पूरबी बोली उसे बहुत अच्छी लगती थी। दादी पहले अम्मा का हाल चाल पूछतीं। इफ़्फ़न की दादी जितना प्यार इफ़्फ़न को करती उतना ही टोपी को भी करती थी, टोपी से अपनत्व रखती थी। उनकी मृत्यु के बाद टोपी को ऐसा लगा मानो उस पर से दादी की छत्रछाया ही खत्म हो गई है। इसलिए टोपी को इफ़्फ़न की दादी की मृत्यु के बाद उसका घर खाली सा लगा। इफ़्फ़न के पिता के ट्रांसफर के बाद टोपी बिलकुल अकेला पड़ गया। वह दो साल तक नौवीं कक्षा पास नहीं कर पाया था और उसका परिवार उसे बिलकुल भी नहीं समझता था।
सूरदास जी ने गोपियों एवं उद्धव के बीच हुए वार्तालाप का वर्णन किया है। जब श्री कृष्ण मथुरा वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा मथुरा यह संदेश भेज देते हैं कि वह वापस नहीं आ पाएंगे, तो उद्धव अपनी राजनीतिक चतुराई से गोपियों को समझाने का प्रयास करते हैं। लेकिन उनके सारे प्रयास विफल हो जाते हैं और अपनी चतुराई के कारण उद्धव को गोपियों के ताने सुनने पड़ते हैं। गोपियों का कृष्ण के प्रति अपार प्रेम है। इसीलिए वे उद्धव को खरी-खोटी सुना रही हैं, क्योंकि श्री कृष्ण के वियोग का संदेश उद्धव ही लेकर आए हैं। गोपियाँ श्री कृष्ण को पाना चाहती हैं, क्योंकि उनसे श्री कृष्ण की विरह सही नहीं जा रही है।
परशुराम कहते हैं कि इस धनुष तोड़ने वाले ने तो मेरे दुश्मन जैसा काम किया है और मुझे युद्ध करने के लिए ललकारा है। अच्छा होगा कि वह व्यक्ति इस सभा में से अलग होकर खड़ा हो जाए नहीं तो यहाँ बैठे सारे राजा मेरे हाथों मारे जाएंगे। वह धनुष कोई मामूली धनुष नहीं था बल्कि वह शिव का धनुष था। मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और सारा संसार मुझे क्षत्रिय कुल के विनाशक के रूप में जानता है। लक्ष्मण कहते हैं जो वीर होते हैं वे व्यर्थ में अपनी बड़ाई नहीं करते बल्कि अपनी करनी से अपनी वीरता को सिद्ध करते हैं। कायर युद्ध में शत्रु के सामने आ जाने पर अपना झूठा गुणगान करते हैं। इसपर विश्वामित्र कहते हैं कि हे मुनिवर यदि इस बालक ने कुछ अनाप-शनाप बोल दिया है तो कृपया इसे क्षमा कर दीजिए। परशुराम ने कहा कि यह बालक मंदबुद्धि लगता है, काल के वश में होकर अपने ही कुल का नाश करने वाला है।
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि देव ने कृष्ण के रूप का सुन्दर चित्रण किया है। कृष्ण के पैरो में घुंघरू और कमर में कमर घनी है जिससे मधुर ध्वनि निकल रही है। उनके सांवले शरीर पर पीले वस्त्र तथा गले में वैयजंती माला सुशोभित हो रही है। उनके सिर पर मुकुट है तथा आँखें बड़ी-बड़ी और चंचल है। उनके मुख पर मंद-मंद मुस्कुराहट है, जो चन्द्र किरणों के समान सुन्दर है। ऐसे श्री कृष्ण जगत-रुपी मंदिर के सुन्दर दीपक हैं और ब्रज के दुल्हा प्रतीत हो रहे हैं।
जिस तरह परिवार में किसी नए बच्चे के आगमन पर सबके चेहरे खिल जाते हैं उसी तरह प्रकृति में बसंत के आगमन पर चारों ओर रौनक छा गयी है। बसंत ऋतु में सुबह-सुबह गुलाब की कली चटक कर फूल बनती है तो ऐसा जान पड़ता है जैसे बालक बसंत को बड़े प्यार से सुबह-सुबह जगा रही हो। कवि की नजर जहाँ कहीं भी पड़ती है वहां उन्हें चाँदनी ही दिखाई पड़ती है। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है जैसे धरती पर दही का समुद्र हिलोरे ले रहा हो। धरती पर फैली चाँदनी की रंगत फर्श पर फ़ैले दूध के झाग़ के समान उज्ज्वल है। यहां कवि ने चन्द्रमा की तुलना राधा के सुन्दर मुखड़े से की है।
इस कविता में कवि ने अपनी आत्मकथा न लिखने के कारणों को बताया है। कवि कहता है यहाँ प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे का मज़ाक बनाने में लगा है, हर किसी को दूसरे में कमी नजर आती है। अपनी कमी कोई नहीं कहता, यह जानते हुए भी तुम मेरी आत्मकथा जानना चाहते हो। कवि कहते हैं कि उनका जीवन स्वप्न के समान एक छलावा रहा है। उनके जीवन में कुछ सुखद पल आये जिनके सहारे वे वर्तमान जीवन बिता रहे हैं। उन्होंने प्रेम के अनगिनत सपने संजोये थे परन्तु वे सपने मात्र रह गए, वास्तविक जीवन में उन्हें कुछ ना मिल सका। इसलिए कवि कहते हैं कि मेरे जीवन की कथा को जानकर तुम क्या करोगे। वे दूसरों के जीवन की कथाओं को सुनने और जानने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
इस कविता में कवि बादल से घनघोर गर्जन के साथ बरसने का निवेदन कर रहे हैं। कवि बादल में नव जीवन प्रदान करने वाली बारिश तथा सब कुछ तहस-नहस कर देने वाला वज्रपात दोनों देखते हैं इसलिए वे बादल से अनुरोध करते हैं कि वह अपने कठोर वज्रशक्ति को अपने भीतर छिपाकर सब में नई स्फूर्ति और नया जीवन डालने के लिए मूसलाधार बारिश करें। कवि को याद आता है की समस्त धरती भीषण गर्मी से परेशान है इसलिए कवि आग्रह करते हैं की बादल खूब गरजे और बरसे और सारी धरती को तृप्त करें।
फागुन यानी फ़रवरी-मार्च के महीने में वसंत ऋतु का आगमन होता है। इस ऋतु में पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और नए पत्ते आते हैं। रंग-बिरंगे फूलों की बहार छा जाती है। और उनकी सुगंध से सारा वातावरण महक उठता है। कवि को ऐसा प्रतीत होता है मानो फागुन के सांस लेने पर सब जगह सुगंध फैल गयी हो। वे चाहकर भी अपनी आँखें इस प्राकृतिक सुंदरता से हटा नहीं सकते। इस सर्वव्यापी सुंदरता का कवि को कहीं ओर छोर नजर नहीं आ रहा है। इसलिए कवि कहते हैं की फागुन की सुंदरता अट नहीं रही है।
इस कविता में कवि ने नवजात शिशु के मुस्कान के सौंदर्य के बारे में बताया है। कवि कहते हैं की शिशु की मुस्कान इतनी मनमोहक और आकर्षक होती है की किसी मृतक में भी जान डाल दे। कवि के हृदय में वात्सल्य की धारा बह निकली और वे अपने शिशु से कहते हैं की तुमने मुझे आज से पूर्व नहीं देखा है इसलिए मुझे पहचान नहीं रहे। वे कहते हैं यदि आज तुम्हारी माँ न होती तो आज मैं तुम्हारी यह मुस्कान भी ना देख पाता। तुम्हारी माँ ने ही सदा तुम्हें स्नेह- प्रेम दिया और देखभाल की। पर जब भी हम दोनों की निगाहें मिलती हैं तब तुम्हारी यह मुस्कान मुझे आकर्षित कर लेती है।
इस कविता में कवि ने फसल क्या है साथ ही इसे पैदा करने में किनका योगदान रहता है उसे स्पष्ट किया है। वे कहते हैं की इसे पैदा करने में एक या दो नहीं बल्कि ढेर सारी नदियों के पानी का योगदान होता है। वे किसानों का महत्व स्पष्ट करते हुए कहते हैं की फसल तैयार करने में असंख्य लोगों के हाथों की मेहनत होती है। कवि ने बताया है की फसल बहुत चीज़ों का सम्मिलित रूप है जैसे नदियों का पानी, हाथों की मेहनत, भिन्न मिट्टियों का गुण तथा सूर्य की किरणों का प्रभाव तथा मंद हवाओं का स्पर्श, इन सब के मिलने से ही हमारी फसल तैयार होती है।
प्रस्तुत कविता में कवि ने मनुष्य को बीते लम्हों को याद ना कर भविष्य की ओर ध्यान देने को कहा है। कवि कहते हैं कि अपने अतीत को याद कर किसी मनुष्य का भला नहीं होता बल्कि मन और दुखी हो जाता है। कवि कहते हैं मनुष्य सारी जिंदगी यश, धन-दौलत, मान, ऐश्वर्य के पीछे भागते हुए बिता देता है जो की केवल एक भ्रम है। जिस तरह हर चांदनी रात के बाद अमावस्या आती है उसी तरह सुख-दुःख का पहिया निरंतर चलता रहता है। जैसे वसंत ऋतु में फूल न खिले तो वह निश्चित ही सुखदायी न होगी वैसे ही मनुष्य को अगर अतीत में जो कुछ उसे मिलना चाहिए था वह न मिले तो वह उदास हो जाता है इसलिए उन्हें भूलना ही बेहतर है।
इस कविता में कवि ने माँ की उस पीड़ा को व्यक्त किया है जब वह अपनी बेटी को विदा करती है। माँ के हृदय में आशंका बनी रहती है कि कहीं ससुराल में उसे कष्ट तो नहीं होगा, अभी वह भोली है। विवाह के बाद वह केवल सुखी जीवन की कल्पना कर सकती है किन्तु जिसने कभी दुःख देखा नहीं वह भला दुःख का सामना कैसे करेगी। माँ अपनी बेटी को सीख देते हुए कहती हैं कि प्रतिबिम्ब देखकर अपने रूप-सौंदर्य पर मत रीझना। माँ दूसरी सीख देते हुए कहती हैं कि आग का उपयोग खाना बनाने के लिए होता है इसका उपयोग जलने-जलाने के लिए मत करना। तीसरी सीख देते हुए माँ कहती हैं कि वस्त्र आभूषणों को ज्यादा महत्व मत देना, ये स्त्री जीवन के बंधन हैं। माँ कहती हैं लड़की होना कोई बुराई नहीं है परन्तु लड़की जैसी कमजोर असहाय मत दिखना।
इस कविता में कवि ने गायन में मुख्य गायक का साथ देने वाले संगतकार की महत्ता को स्पष्ट किया है। कवि कहते हैं बहुत ऊँची आवाज़ में जब मुख्य गायक का स्वर उखड़ने लगता है और गला बैठने लगता है तब संगतकार अपनी कोमल आवाज़ का सहारा देकर उसे इस अवस्था से उभारने का प्रयास करता है। वह मुख्य गायक को स्थायी गाकर हिम्मत देता है की वह इस गायन जैसे अनुष्ठान में अकेला नहीं है। वह पुनः उन पंक्तियों को गाकर मुख्य गायक के बुझते हुए स्वर को सहयोग प्रदान करता है। इस समय उसके आवाज़ में एक झिझक भी होती है की कहीं उसका स्वर मुख्य गायक के स्वर से ऊपर ना पहुँच जाए। ऐसा करने का मतलब यह नहीं है की उसकी आवाज़ में कमजोरी है बल्कि वह आवाज़ नीची रखकर मुख्य गायक को सम्मान देता है। इसे कवि ने महानता बताया है।
हालदार साहब को हर पन्द्रहवें दिन कंपनी के काम से एक छोटे कस्बे से गुजरना पड़ता था। वहां मुख्य बाजार के चौराहे पर नेता जी की मूर्ति बनी थी, उसपर चश्मा नहीं था। एक सचमुच का फ्रेम पहनाया हुआ था। हालदार साहब जब भी आते उन्हें मूर्ति पर नया चश्मा मिलता। पान वाले से पूछने पर उसने बताया की यह काम कैप्टन चश्मे वाला करता है। दो साल के भीतर हालदार साहब ने नेता जी की मूर्ति पर कई चश्मे लगते हुए देखे। एक दिन मूर्ति पर कोई चश्मा भी था, कैप्टन मर गया था, हालदार को बहुत दुःख हुआ। अगली बार आने पर वे जीप से उतरे और मूर्ति के सामने जाकर खड़े हो गए, देखा की मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना हुआ छोटा सा चश्मा रखा था, जैसा बच्चे बना लेते हैं। यह देखकर हालदार साहब की आँखें नम हो गयीं।
बालगोबिन भगत की उम्र साठ वर्ष से ऊपर थी और बाल पक गए थे। उनका एक बेटा और पतोहू थे। वे कबीर को साहब मानते थे। उनके पास खेती-बाड़ी थी तथा साफ़-सुथरा मकान था। खेत से जो भी उपज होती, उसे पहले कबीर पंथी मठ ले जाते और प्रसाद स्वरूप जो भी मिलता उसी से गुजारा करते। वे कबीर के पद का बहुत मधुर गायन करते। जब उनका इकलौता पुत्र मरा तब उन्होंने मरे हुए बेटे को आँगन में चटाई पर लिटा दिया और भजन गाने लगे। उन्होंने बेटे की चिता को अग्नि भी बहू से दिलवाई। बहू के भाई को बुलाकर उसके दूसरा विवाह करने का आदेश दिया। बालगोबिन भगत की मृत्यु भी उनके अनुरूप ही हुई। अब उनका शरीर बूढ़ा हो चुका था। एक बार जब गंगा स्नान से लौटे तो तबीयत ख़राब हो चुकी थी। एक दिन संध्या में गाना गया परन्तु भोर में किसी ने गीत नहीं सुना, जाकर देखा तो पता चला बालगोबिन भगत नहीं रहे।
लेखक को पास में ही कहीं जाना था। लेखक दौड़कर ट्रेन के एक डिब्बे में चढ़े परन्तु अनुमान के विपरीत उन्हें डिब्बा खाली नहीं मिला। वहां नवाब साहब बैठे थे। अचानक ही नवाब साहब ने लेखक को संबोधित करते हुए खीरे का लुफ़्त उठाने को कहा परन्तु लेखक ने शुक्रिया करते हुए मना कर दिया। नवाब ने बहुत ढंग से खीरे धोकर छिले काटे और उसमें जीरा, नमक-मिर्च लगाकर तौलिये पर सजाया। नवाब साहब खीरे की एक फाँक को उठाकर होठों तक ले गए उसकी सुगंध का आनंद लिया फिर फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। इसी प्रकार एक-एक करके फाँक को उठाकर सूँघते और फेंकते गए। यह देखकर लेखक ने सोचा की जब खीरे के गंध से पेट भर जाने की डकार आ सकती है तो बिना विचार, घटना और पात्रों के इच्छा मात्र से नई कहानी बन सकती है।
लेखक कहते हैं कि फादर बुल्के एक देवदार के वृक्ष के समान थे। फादर बुल्के भारतीय संस्कृति के एक अभिन्न अंग थे। वे बेल्जियम से आये थे पर भारतीयों के लिए उन्हें बहुत प्रेम था। उन्हें हिंदी भाषा से बहुत प्रेम था। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा व भारत को अपना देश बनाने के लिए अनेक प्रयत्न किए। उन्होंने ब्लू-बर्ड और बाइबल को हिंदी में लिखा। वे हिंदी भाषा व साहित्य से संबंधित संस्थाओं से जुड़े हुए थे। वे लेखकों को स्पष्ट राय देते थे। उन्होंने अंग्रेजी हिंदी कोश तैयार किया। वे लोगों के सुख दुख में शामिल होते थे। उनके मन में सबके लिए करुणा थी और वे सबके प्रति सहानुभूति व्यक्त करते थे। उनकी आँखों में एक दिव्य चमक थी जिसमें असीम वात्सल्य था। लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे और उनकी मृत्यु पर असंख्य लोगों ने दुख प्रकट किया।
पांच भाई-बहनों में लेखिका सबसे छोटी थीं। बड़ी बहन के विवाह तथा भाइयों के पढ़ने के लिए बाहर जाने पर पिता का ध्यान लेखिका पर केंद्रित हुआ। पिता ने उन्हें रसोई में समय ख़राब न कर देश दुनिया का हाल जानने के लिए प्रेरित किया। घर में जब कभी विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के जमावड़े होते और बहस होती तो लेखिका के पिता उन्हें उस बहस में बैठाते जिससे उनके अंदर देशभक्ति की भावना जगी। एक बार जब पिता ने अज़मेर के व्यस्त चौराहे पर बेटी के भाषण की बात अपने पिछड़े मित्र से सुनी जिसने उन्हें मान-मर्यादा का लिहाज करने को कहा तो उनके पिता गुस्सा हो गए परन्तु रात को जब यही बात उनके एक और अभिन्न मित्र ने लेखिका की बड़ाई करते हुए कहा तो लेखिका के पिता ने गौरवान्वित महसूस किया। छोटे शहर की युवा लड़की ने आज़ादी की लड़ाई में जिस तरह से भागीदारी निभाई, उसमें उसका उत्साह, ओज, संगठन क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है।
लेखक को इस बात का दुःख है आज भी ऐसे पढ़े-लिखे लोग समाज में हैं जो स्त्रियों का पढ़ना गृह-मुख के नाश का कारण समझते हैं। इन सब बातों का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं की क्या कोई सुशिक्षित नारी प्राकृत भाषा नहीं बोल सकती। लेखक प्राचीन काल की अनेकानेक शिक्षित स्त्रियाँ जैसे शीला विज्जा के उदाहरण देते हुए उनके शिक्षित होने की बात को प्रमाणित करते हैं। वे कहते हैं की जब प्राचीन काल में स्त्रियों को नाच-गान, फूल चुनने, हार बनाने की आजादी थी तब यह मत कैसे दिया जा सकता है की उन्हें शिक्षा नहीं दी जाती थी। लेखक कहते हैं मान लीजिये प्राचीन समय में एक भी स्त्री शिक्षित नहीं थीं, सब अनपढ़ थीं उन्हें पढ़ाने की आवश्यकता ना समझी गयी होगी परन्तु वर्तमान समय को देखते हुए उन्हें अवश्य शिक्षित करना चाहिए। प्राचीन मान्यताओं को आधार बनाकर स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखना अनर्थ है।
बिस्मिल्लाह खां बिहार में डुमरांव में पैदा हुए। उनका नाम अमरुद्दीन रखा गया। पांच छह साल की उम्र में वे अपने नाना के पास काशी में रहने के लिए गए। उन्होंने अपने मामा से शहनाई बजाना सीखा। शहनाई बजाना उनके खानदान का पेशा था। वे अपने धर्म में पूरा विश्वास करते थे और उसका पालन करते थे। उसके साथ में वे अन्य धर्मों का भी सम्मान करते थे। वे पांच बार दिन में नमाज़ पढ़ते थे और काशी विश्वनाथ व बाला जी के मंदिर की ओर मुंह करके शहनाई भी बजाते थे। खां साहब शहनाई को सिर्फ एक वाद्ययंत्र नहीं बल्कि अपनी साधना का माध्यम मानते थे। अस्सी वर्ष की उम्र तक उन्होंने अपनी इस साधना को जारी रखा। एक जाने माने कलाकार होने के बावजूद उनमें जरा सा भी अहंकार नहीं था। यह उनका एक विशेष गुण था।
लेखक कहते हैं की सभ्यता और संस्कृति दो ऐसे शब्द हैं जिनका उपयोग अधिक होता है परन्तु समझ में कम आता है। कभी-कभी दोनों को एक समझ लिया जाता है तो कभी अलग। अपनी बुद्धि के आधार पर नए निश्चित तथ्य को खोज आने वाली पीढ़ी को सौंपने वाला संस्कृत होता है जबकि उसी तथ्य को आधार बनाकर आगे बढ़ने वाला सभ्यता का विकास करने वाला होता है। मानव हित में काम ना करने वाली संस्कृति का नाम असंस्कृति है। इसे संस्कृति नहीं कहा जा सकता। यह निश्चित ही असभ्यता को जन्म देती है। मानव हित में निरंतर परिवर्तनशीलता का ही नाम संस्कृति है।
प्रस्तुत साखी कबीर दास द्वारा रचित है। यहाँ पर पाँच साखियाँ दी गई। है। प्रत्येक साखी में कबीर दास ने नीतिपरक शिक्षा देने का प्रयास किया है। प्रथम साखी में कवि ने गुरु के महत्व को प्रतिपादित किया है कि यदि गुरु और गोविंद दोनों उनके सामने खड़े हो तो वे पहले गुरु के चरण स्पर्श करेंगे कारण गुरु ने ही उन्हें ईश्वर का ज्ञान दिया है। दूसरी साखी में कवि ने कहा है कि अहंकार को मिटाकर ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। तीसरी साखी में कवि ने मुसलमानों पर व्यंग करते हुए कहा है कि ईश्वर की उपासना शांत रहकर भी की जा सकती है। चौथी साखी में कवि ने हिन्दुओं की मूर्ति पूजा का खंडन किया है कि पत्थर पूजने से भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। पाँचवीं साखी में कवि ने ईश्वर को अनंत बताया है। कवि के अनुसार ईश्वर की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता।
इस पद में मीराबाई अपने प्रिय भगवान श्रीकृष्ण से विनती करते हुए कहतीं हैं कि हे प्रभु अब आप ही अपने भक्तों की पीड़ा हरें। उदाहरणों को देकर दासी मीरा कहती हैं की हे गिरिधर लाल! आप मेरी पीड़ा दूर कर मुझे छुटकारा दीजिये। मीरा कहती हैं कि हे श्याम! आप मुझे अपनी दासी बना लीजिये। आपकी दासी बनकर मैं आपके लिए बाग- बगीचे लगाऊँगी, जिसमें आप विहार कर सकें। इस प्रकार दर्शन, स्मरण और भाव-भक्ति नामक तीनों बातें मेरे जीवन में रच-बस जाएंगी। अगली पंक्तियों में मीरा श्री कृष्ण के रूप-सौंदर्य का वर्णन करती है। वे वृन्दावन में गायें चराते हैं और मनमोहक मुरली बजाते हैं। मीरा भगवान कृष्ण से निवेदन करते हुए कहती हैं कि हे प्रभु! आप आधी रात के समय मुझे यमुना जी के किनारे अपने दर्शन देकर कृतार्थ करें।
पहले दोहे में कवि कहते हैं कि श्री कृष्ण के नीलमणि रूपी साँवले शरीर पर पीले वस्त्र रूपी धूप अत्यधिक शोभित हो रही है। दूसरे दोहे में कवि कहते हैं की गर्मी के कारण जंगल तपोवन बन गया है जहाँ सभी जानवर आपसी द्वेष भुलाकर एक साथ बैठे हैं। तीसरे दोहे में कवि गोपियों की श्री कृष्ण के साथ बात करने की उत्सुकता को प्रकट करते हैं। चौथे दोहे में कवि नायक और नायिका द्वारा भीड़ में भी किस तरह आँखों ही आँखों में बात की जाती है इस बात का वर्णन करते हैं। पांचवें दोहे में कवि कहते हैं कि गर्मी इतनी अधिक बढ़ गई है कि छाया भी छाया ढूंढ़ने के लिए घने जंगलों व घरों में छिप गई है। छठे दोहे में कवि कहते हैं कि नायिका नायक को सन्देश भेजना चाहती है परन्तु अपनी विरह दशा का वर्णन कागज़ पर नहीं कर पा रही है। सातवें दोहे में कवि श्री कृष्ण से कहते हैं कि आप चन्द्र वंश में पैदा हुए हो और स्वयं ब्रज आये हो। अंतिम दोहे में कवि बताते हैं कि सच्ची भक्ति से ही ईश्वर प्रसन्न होते हैं।
मनुष्यता कविता में कवि मैथिलीशरण गुप्त ने सही अर्थों में मनुष्य किसे कहते हैं उसे बताया है। कवि कहते हैं कि मनुष्य को ज्ञान होना चाहिए कि उसे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। उसे ऐसी मृत्यु को प्राप्त करना चाहिए जिससे बाद में सभी लोग उसे याद करें। कवि के अनुसार उदार व्यक्तियों की उदासीनता को पुस्तकों के इतिहास में स्थान देकर उनका व्याख्यान किया जाता है। जो व्यक्ति विश्व में एकता और अखंडता को फैलाता है उसकी कीर्ति का सारे संसार में गुणगान होता है। असल मनुष्य वह है जो दूसरों के लिए जीये और मरे। आज भी लोग उन लोगों की पूजा करते हैं जो पीड़ित व्यक्तियों की सहायता तथा उनके कष्ट को दूर करते हैं। कवि मनुष्य को कहता है कि अपने इच्छित मार्ग पर प्रसन्नता पूर्वक हंसते खेलते चलो और रास्ते पर जो बाधाएं पड़ी हैं उन्हें हटाते हुए आगे बढ़ो।
यह एक ऐसी कविता है जो कि पर्वत के प्रदेश की प्राकृतिक सुंदरता को प्रस्तुत करती है। इस कविता को पढ़कर ऐसा महसूस होता है मानो हम अपनी आँखों से ही पर्वतीय प्रदेश की सुंदरता की कल्पना कर पाते हैं। जिन लोगों ने कभी पर्वतीय क्षेत्र में भ्रमण नहीं किया है, वह पंत जी की कविता से सौन्दर्य की अनुभूति ले सकते हैं। इस कविता में पंत जी ने पर्वतीय क्षेत्र का वर्णन करते हुए कहा है कि यहाँ का सौन्दर्य अद्भुत है। यहां कि प्रकृति हर समय अपना रूप बदलती है। कवि प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन करते हैं और अपनी लेखनी के माध्यम से पाठक को बांधे रखते हैं। हिन्दी में पावस का अर्थ होता है वर्षाकाल । शीर्षक का आशय भी यही है कि पर्वतों में वर्षाकाल का समय।
विश्वास और श्रद्धा के सहारे वह अपने ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाना चाहती हैं। उन्हें स्वयं से बहुत अपेक्षाएँ हैं। इस कविता में स्वहित के स्थान पर लोकहित को अधिक महत्व दिया गया है। कवियत्री अपने आस्था रूपी दीपक से आग्रह करती है कि वह निरंतर हर परिस्थिति में जलता रहे। क्योंकि उसके जलने से इन तारों रूपी संसार के लोगों को राहत मिलेगी। उनके अनुसार लोगों के अंदर भगवान को लेकर विश्वास धुंधला रहा है। थोड़ा सा कष्ट आने पर वे परेशान हो जाते हैं। अत: तेरा जलना अति आवश्यक है। तुझे जलता हुआ देखकर उनका विश्वास बना रहेगा। उनके अनुसार एक आस्था के दीपक से सौ अन्य दीपकों को प्रकाश मिल सकता है।
यहां बताया गया है की ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने आई थी और धीरे-धीरे राज करना शुरू कर दिया। अगर उन्होंने कुछ बाग़-बगीचे बनाये तो उन्होंने तोपें भी तैयार की। कवि कहते हैं कि यह जो 1857 की तोप आज कंपनी बाग़ के प्रवेश द्वार पर रखी गई है इसकी बहुत देखभाल की जाती है। सुबह और शाम को बहुत सारे व्यक्ति कंपनी के बाग़ में घूमने के लिए आते हैं। तब यह तोप उन्हें अपने बारे में बताती है कि मैं अपने ज़माने में बहुत ताकतवर थी। अब तोप की स्थिति बहुत बुरी है- छोटे बच्चे इस पर बैठ कर घुड़सवारी का खेल खेलते हैं। चिड़ियाँ इस पर बैठ कर आपस में बातचीत करने लग जाती हैं। कभी-कभी शरारती चिड़ियाँ खासकर गौरैये तोप के अंदर घुस जाती हैं। वह हमें बताना चाहती है कि ताकत पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए क्योंकि ताकत हमेशा नहीं रहती।
कवि इस कविता के माध्यम से देश के लोगों को शहीदों के हृदय की पीड़ा व चिन्ता को दर्शाने का प्रयास करते हैं। कवि कहते हैं की शहीद सैनिक कहता है की हमने अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए देश की सीमाओं की रक्षा अपने प्राणों का बलिदान देकर की है। हमने सीमा पर रहते हुए विभिन्न तरह की कठिनाइयों को झेला है परन्तु कभी उन कठिनाइयों से हार नहीं मानी। हमारे कारण कभी हमारे देश का सिर शर्म से नहीं झुका है। अब तुम्हारी बारी है। तुम्हें अपने देश की रक्षा उसी प्रकार करनी है जैसे राम व लक्ष्मण ने सीता के मान-सम्मान की रक्षा रावण के विरुद्ध खड़े होकर की थी। वह कहते हैं की देश की रक्षा करने का सौभाग्य कभी-कभी आता है, उसे कभी अपने हाथ से नहीं जाने देना । देश पर अपने प्राणों को न्यौछावर करना तो देश के वीरों का काम है।
इस कविता में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने प्रभु से निम्नलिखित निवेदन किया है—हे प्रभु मुझे संकटों से मत बचाओ बस उनसे निर्भय रहने की शक्ति दो। मुझे दुख सहने की शक्ति दो। कोई सहायक न मिले तो भी मेरा बल न हिले। हानि में भी मैं हारूं नहीं। मेरी रक्षा चाहे न करो किंतु मुझे तैरने की शक्ति जरूर दो। मुझे सांत्वना चाहे न दो किंतु दुख झेलने की शक्ति अवश्य दो। मैं सुख में भी तुम्हें याद रखूं। बड़े-से-बड़े दुख में भी तुम पर संशय न करूं।
प्रस्तुत पाठ में एक बड़े भाई साहब हैं जो हैं तो छोटे ही परन्तु उनसे छोटा भी एक भाई है। वे उससे कुछ ही साल बड़े हैं परन्तु उनसे बड़ी-बड़ी आशाएं की जाती हैं। बड़े होने के कारण वे खुद भी यही चाहते हैं कि वे जो भी करें छोटे भाई के लिए प्रेरणा दायक हो । भाई साहब उससे पाँच साल बड़े हैं, परन्तु तीन ही कक्षा आगे पढ़ते हैं। वे हर कक्षा में एक साल की जगह दो साल लगाते थे और कभी- कभी तो तीन साल भी लगा देते थे। वे हर वक्त किताब खोल कर बैठे रहते थे। इत्तेफ़ाक से उस समय एक कटी हुई पतंग लेखक के ऊपर से गुज़री। उसकी डोर कटी हुई थी और लटक रही थी। लड़कों का एक झुंड उसके पीछे-पीछे दौड़ रहा था। भाई साहब लम्बे तो थे ही, उन्होंने उछाल कर डोर पकड़ ली और बिना सोचे समझे हॉस्टल की और दौड़े और लेखक भी उनके पीछे-पीछे दौड़ रहा था।
यह हमें 1930-31 के आस-पास हो रही राजनीतिक हलचल के बारे में बताता है। इसमें एक दिन की घटनाओं का वर्णन है, जब बंगाल के लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए अपूर्व जोश दिखाया था। 26 जनवरी 1931 को घटी इन घटनाओं द्वारा उन्होंने दिखा दिया कि वे भी किसी से कम नहीं हैं। पुलिस की बर्बरता और कठोरता के बाड़ भी हजारों लोगों ने स्वाधीनता मार्च में हिस्सा लिया, जिनमें औरतें भी बड़ी संख्या में शामिल थीं। उन्होंने लाठियां खायीं, खून बहाया लेकिन फिर भी वे पीछे नहीं हटे और अपना काम करते रहे। एक डॉक्टर जो घायलों की देखभाल कर रहा था उसने उनके इलाज के साथ-साथ उनके फोटो भी लिए ताकि उन्हें अख़बारों में छपवा कर इस घटना को पूरे देश तक पहुँचाया जा सके। साथ ही ब्रिटिश सरकार की क्रूरता को भी दुनिया को दिखाया जा सके।
बहुत समय पहले ,जब लिटिल अंदमान और कार निकोबार एक साथ जुड़े हुए थे ,तब वहाँ एक बहुत सुंदर गाँव हुआ करता था। निकोबार के सभी व्यक्ति उससे बहुत प्यार करते थे। एक शाम तताँरा को समुद्र के किनारे से मधुर संगीत सुनाई दिया जो उसी के आस पास कोई गा रहा था। तताँरा बैचेन मन से उस दिशा की ओर बढ़ता गया। वहां उसे वामीरो नाम की एक सुंदर युवती मिली। तताँरा बिलकुल वैसा ही था जैसा वामीरो अपने जीवन साथी के बारे में सोचती थी। परन्तु दूसरे गाँव के युवक के साथ उसका सम्बन्ध रीति रिवाजों के विरुद्ध था। इसलिए वामीरो ने तताँरा को भूल जाना ही समझदारी समझा। परन्तु यह आसान नहीं लग रहा था क्योंकि तताँरा बार-बार उसकी आँखों के सामने आ रहा था जैसे वह बिना पलकों को झपकाए उसकी प्रतीक्षा कर रहा हो।
इस पाठ में लेखक ने गीतकार शैलेन्द्र और उनकी बनायी हुई पहली और आखिरी फिल्म तीसरी कसम के बारे में बताया है। इसमें हिंदी साहित्य की अत्यंत मार्मिक कलाकृति को सैल्यूलाइड पर उतारा गया था। इस फिल्म को अनेक पुरस्कार मिले, जैसे राष्ट्रपति स्वर्ण पदक', बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्म, मॉस्को फिल्म फेस्टिवल आदि में पुरस्कार मिला। शैलेन्द्र ने इसमें अपनी संवेदनशीलता को अच्छी तरह दिखाया था। राज कपूर ने भी अच्छा अभिनय किया था। वहीदा रहमान इसकी नायिका थी। राज कपूर ने इस फिल्म के लिए शैलेन्द्र से सिर्फ एक रुपया लिया। फिल्म में जय किशन का संगीत था और उसके गाने पहले ही लोकप्रिय हो चुके थे। परन्तु फिल्म को खरीदने वाला कोई न था। फिल्म का प्रचार कम हुआ और वह कब आई और गयी पता नहीं चला। शैलेन्द्र ने झूठे अभिजात्य को कभी नहीं अपनाया।
गिरगिट पाठ मशहूर रूसी लेखक की रचना है जिसमें उन्होंने उस समय की राजनीतिक स्थितियों पर करारा व्यंग्य किया है। बड़े अधिकारियों के तलवे चाटने वाले पुलिसवाले कैसे आम जनता का शोषण करते हैं इसे बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है। एक नागरिक को कुत्ते के काट लेने पर पहले तो पुलिस इंस्पेक्टर कुत्ते के खिलाफ बोलता है लेकिन जैसे ही उसे पता चलता है की कुत्ता बड़े अफसर का है तो तुरंत पलटी मार कर कुत्ते के पक्ष में बोलने लगता है। उसके बाद तो कहानी पूरी तरह अपने नाम को सार्थक करती नज़र आती है। लोगों की बातों के अनुसार जिस प्रकार पल-पल में वह रंग बदलता है उसे देखकर तो गिरगिट को भी शर्म आ जाये। लेकिन वह इतना ढीठ है की उस पर किसी बात का कोई असर नहीं होता और वह अंत तक केवल रंग ही बदलता रहता है। जनता के दुःख दर्द से उसे कोई लेना देना नहीं होता।
बाइबल के सोलोमन को कुरान में सुलेमान कहा गया है। वे 1025 वर्ष पूर्व एक बादशाह थे। यह धरती किसी एक की नहीं है। सभी जीव जंतुओं का सामान अधिकार है। पहले पूरा संसार एक था मनुष्य ने ही इसे एक टुकड़े में बांटा है पहले लोग मिल जुलकर रहते थे अब वे बंट चुके हैं। प्रकृति का रूप बदल गया है। लेखक की माँ कहती थी कि सूरज ढले आँगन के पेड़ से पत्ते मत तोड़ो। लेखक बताते हैं की ग्वालियर में उनका मकान था। अब संसार में काफी बदलाव आ गया है। लेखक मुंबई के वर्सोवा इलाके में रहते थे। वहां समंदर किनारे बस्ती बन गयी है यहाँ से परिंदे दूर चले गए हैं। लोग उन्हें अपने घरों में घोसला बनाने नहीं देते। उनके आने की खिड़की को बंद कर दिया गया है। अब इनका दुःख बांटने वाला कोई नहीं है।
पतझर में टूटी पत्तियाँ पाठ लेखक रविन्द्र द्वारा रची गई दार्शनिक रचना है जिसका नाम है-गिन्नी का सोना। इस कहानी में लेखक हमें शुद्ध सोना अर्थात् आदर्शवादी तरीके से रहने कि और तांबे जैसे सख्त होने कि प्रेरणा देते हैं। "झेन की देन" इस रचना से लेखक जापान पहुंच जाते हैं। पाठ में पता चलता है की जापानी मनोरोग से ग्रस्त हैं। उनकी मन की गति को धीमा करने के लिए एक झेन जो उनकी पूर्वज थे चो नो यू आयोजित करते थे। इस विधि को और इससे होने वाले परिणाम के विषय में लेखक ने अच्छे से बताया हैं।
यह कहानी 'कारतूस' एक व्यक्ति वजीर अली पर आधारित है। इसमें वजीर अली के साहसी कारनामों का वर्णन किया गया है। वजीर अली जो कि अवध के नवाब आसिफ़उद्दौला का पुत्र था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने वजीर अली का राज्य उसके चाचा को सौंप दिया और उसे राज्य से वंचित कर दिया था। इसकी वजह से वह अंग्रेजों का दुश्मन बन गया। तभी से वह अंग्रेज़ों को अपने देश से बाहर निकलना चाहता था। वजीर अली एक साहसी और निडर व्यक्ति था। उसने अकेले ही अंग्रेज़ों के खेमे में जाकर कारतूस प्राप्त कर लिया था।
आकाश द्वारा निर्मित कक्षा 10 हिंदी के एन.सी.ई.आर.टी के हल किस उद्देश्य से तैयार किये गए हैं ?
आकाश संसथान ने कक्षा 10 हिंदी के हल छात्रों की सहायता हेतु तैयार किये हैं। हल बनाने वाले शिक्षकों का उद्देश्य है कि इससे छात्रों को हिंदी का ज्ञान प्राप्त हो और छात्रों को परीक्षा में पढ़ने के लिए मशक्कत ना करनी पड़े और परीक्षा में उन्हें अच्छे अंक प्राप्त हों।
आकाश द्वारा तैयार किये गए एन.सी.ई.आर.टी के हल को समझने लिए छत्रों को क्या करना होगा ?
आकाश के एन.सी.ई.आर.टी के हल बेहद आसान भाषा में तैयार किये गए हैं। आकाश संसथान के शिक्षकों का यह उद्देश्य था कि हल में प्रयोग करी गयी भाषा सबके समझ में आये और छत्रों को इसे समझने के लिए किसी से मदद न लेनी पड़े।
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