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1800-102-2727कवयित्री अपने हृदय में स्थित आस्था रूपी दीपक को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि तुम लगातार हर पल, हर दिन युग-युगांतर तक जलते रहो ताकि मेरे परमात्मा रूपी प्रियतम का पथ सदा प्रकाशित रहे यानी ईश्वर के प्रति उनका विश्वास कभी ना टूटे।
कवयित्री अपने तन को कहती हैं कि जिस प्रकार धूप या अगरबत्ती खुद जलकर सारे संसार को सुगंधित करती हैं उसी तरह तुम अपने अच्छे कर्मों से इस जग को सुगंधित करो। जिस तरह मोम जलकर सारे वातावरण को प्रकाशित करता है उसी तरह वह शरीर रूपी मोम को जलाकर अपने अहंकार को नष्ट करने, पिघलाने का अनुरोध करती हैं। वह अपने आस्था रूपी दीपक को प्रसन्नतापूर्वक जलते रहने को कहती हैं।
कवयित्री कहती हैं कि आज सारे संसार में परमात्मा के प्रति आस्था का अभाव है इसलिए सारे नए कोमल प्राणी यानी मन प्रभु भक्ति से विरक्त हैं, वे आस्था की ज्योति को संसार में ढूंढ रहे हैं पर उन्हें कहीं कुछ प्राप्त नहीं हो रहा है। संसार रूपी पतंगा पश्चाताप कर रहा है और अपने दुर्भाग्य पर रो रहा है कि प्रभु भक्ति की ज्योत में मैं अपने अहंकार को क्यों नहीं नष्ट कर पाया, यदि मैं ऐसा कर पाता तो शायद अब तक परमात्मा से मिलन हो जाता।
कवयित्री को आकाश में अनगिनत तारे दिख रहे हैं परन्तु वे सभी स्नेह रहित लग रहे हैं। इन सबके हृदय में ईश्वर की भक्ति और आस्था रूपी तेल नहीं है इसलिए ये भक्ति रूपी रोशनी नहीं दे पा रहे हैं। जिन लोगों में आस्था रूपी दीपक होता है वे उन बादलों की भांति शांत होकर ठंडा जल बरसाते हैं मगर ईर्ष्या-द्वेष वाले लोग क्षण भर में बिजली की तरह नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कवयित्री दीपक को हँस-हँसकर लगातार जलने को कह रही हैं ताकि प्रभु का पथ आलोकित रहे और लोग उस पर चलें।
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