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1800-102-2727इन पंक्तियों में बिहारी श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं की पीले वस्त्र पहने श्रीकृष्ण ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो नीलमणि पर्वत पर प्रातः कालीन सूर्य की किरण पड़ रही हो। ग्रीष्म ऋतु की भयानक ताप ने इस संसार को जैसे तपोवन बना दिया है, विपत्ति की इस घड़ी में सभी द्वेषों को भुलाकर जानवर भी तपस्वियों जैसा व्यवहार कर रहे हैं।
गोपियों ने श्रीकृष्ण से बात करने की लालसा के कारण उनकी बाँसुरी छुपा दी है, वे कृष्ण को उनकी बाँसुरी देने से इनकार करती हैं। इसमें ऐसा प्रतीत होता है मानो भरे भवन में नायक अपनी नैनों से नायिका से मिलने को कहता है, जिसे नायिका मना कर देती है उसके मना करने के इशारे पर नायक मोहित हो जाता है जिससे नायिका खीज जाती है। बाद में दोनों मिलते हैं और उनके चेहरे खिल जाते हैं तथा नायिका शरमा उठती है।
बिहारी ने जेठ मास की दोपहरी का चित्रण किया है। इस समय धूप इतनी अधिक होती है कि आराम के लिए कहीं छाया भी नहीं मिलती, ऐसा लगता है मानो छाया भी छाँव को ढूँढने चली गई हो। इन पंक्तियों में बिहारी उस नायिका की मनोदशा को दिखा रहे हैं जिसका प्रियतम उससे दूर है। नायिका कहती है कि उससे कागज़ पर अपना सन्देश लिखा नहीं जा रहा है किसी संदेशवाहक के द्वारा संदेश नहीं भिजवा सकती क्योंकि उसे कहने में लज्जा आ रही है।
बिहारी श्रीकृष्ण से कह रहे हैं कि आप चन्द्र वंश में पैदा हुए तथा अपनी इच्छा से ब्रज आये, आप मेरे पिता के समान हैं। आप मेरे सारे कष्टों को दूर करें। कवि आगे कहते हैं कि मन काँच की तरह क्षण भंगुर होता है जो व्यर्थ में नाचता रहता है। सब दिखावे को छोड़ अगर भगवान की सच्चे मन से आराधना की जाए तभी काम बनता है।
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