प्रस्तुत कविता में कवि वीरेन डंगवाल ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के युद्ध में अंग्रेज़ों द्वारा इस्तेमाल की हुई तोप का वर्णन किया है। कवि कहते हैं कि यह तोप आज कम्पनी बाग़ के प्रवेश द्वार रखी हुई है जिस तरह कम्पनी बाग़ हमें अंग्रेज़ों द्वारा विरासत में मिली थी उसी तरह यह तोप भी हमें अंग्रेजों से ही प्राप्त हुआ है। जिसे आजकल बहुत देखभाल से रखा जाता है। कम्पनी बाग़ की तरह इसे भी साल में दो बार चमकाया जाता है।
सुबह-शाम को बहुत सारे यात्री कम्पनी बाग़ में घूमने आते हैं तब यह तोप अपने बारे में बताती है की मैं बड़ी ताकतवर थी। उस समय मैंने बहुत सारे वीरों को मारा था बहुत अत्याचार किए थे।
परन्तु अब तोप की स्थिति बहुत बुरी है छोटे बच्चे इस पर बैठकर घुड़सवारी का खेल खेलते हैं। जब तोप बच्चों से मुक्त हो जाती है तब चिड़िया इस पर बैठकर आपस में गप्प करती हैं। कभी-कभी चिड़ियाँ खास तौर पर गौरैये तोप के भीतर घुस जाती हैं। इस दृश्य से कवि को ऐसा महसूस होता है मानो वह कह रही हो की कोई कितना भी अत्याचारी और क्रूर क्यों न हो उसका अंत एक न एक दिन जरूर होना है।
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