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1800-102-2727लेखक कहते हैं कि सभ्यता और संस्कृति दो ऐसे शब्द हैं, जिसका उपयोग अधिक होता है परन्तु समझ में कम आते हैं। लेखक समझाने का प्रयास करते हुए आग और सुई-धागे के आविष्कार का उदाहरण देते हैं। वह उसके आविष्कर्ता की बात कहकर व्यक्ति विशेष की योग्यता, प्रवृत्ति और प्रेरणा को व्यक्ति विशेष की संस्कृति कहते हैं, जिसके बल पर आविष्कार किया गया। लेखक संस्कृति और सभ्यता में अंतर बताते हुए कहते हैं कि जैसे लौहे के टुकड़े को घिसकर छेद बनाना और धागा पिरोकर दो अलग-अलग टुकड़ों को जोड़ने की सोच संस्कृति है। इन खोजों को आधार बनाकर आगे जो इन क्षेत्रों में विकास हुआ वह सभ्यता कहलाता है।
लेखक के अनुसार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सुई-धागे और आग के अविष्कार करने वाले तथ्य संस्कृति बनने के आधार नहीं बनते बल्कि मनुष्य में सदा बसने वाली सहज चेतना ही इसकी उत्पत्ति का कारण बनती है। मुंह के कौर को दूसरे के मुंह में डाल देना और रोगी बच्चे को रात-रात भर गोदी में लेकर माता का बैठे रहना इसी चेतना से प्रेरित होता है। लेखक कहते हैं कि खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के तरीके आवागमन के साधन से लेकर परस्पर मर-कटने के तरीके भी संस्कृति का ही परिणाम हैं और सभ्यता के उदाहरण हैं। मानव हित में काम न करने वाली संस्कृति का नाम और असंस्कृति है, इसे संस्कृति नहीं कहा जा सकता, यह निश्चित ही और असभ्यता को जन्म देती है। मानव हित में निरंतर परिवर्तनशीलता का ही नाम संस्कृति है इसका कल्याणकारी अंश, अकल्याणकारी अंश की तुलना में सदा श्रेष्ठ और स्थायी है।
भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म 1905 में पंजाब के अंबाला जिले के सोहाना गांव में हुआ। उनके बचपन का नाम हरनाम दास था, इन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी.ए. किया। यह बौद्ध भिक्षु थे और इन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार भी किया। इनके प्रमुख कार्यों में भिक्षु के पत्र, जो भूल ना सका, जैसी अन्य मशहूर पुस्तकें भी शामिल हैं। सन् 1988 में उनका निधन हो गया।
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