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1800-102-2727'राही मासूम रज़ा' ने 'टोपी शुक्ला' कहानी में समाज की सांप्रदायिक कुरूति पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि इंसान भी कैसा है, नामों के चक्कर में पड़कर कितने फसाद करता है। नाम यदि कृष्ण हो तो अवतार कहा जाता है और यदि मुहम्मद हो तो पैगंबर कहलाता है। दोनों ही चरवाहे हैं, पशुपालक है, एक नाम को छोड़कर दोनों में सभी कुछ समान है परंतु लोग ये सब कहाँ देखते हैं उन्हें तो केवल नाम का अंतर दिखाई देता है। इस कहानी में लेखक ने दो बालकों के चरित्र को वर्णित किया है एक बलभद्र नारायण उर्फ़ टोपी और दूसरा का सैय्यद ज़रगाम मुर्तुज़ा उर्फ़ इफ्फन। ये दोनों ही यूँ तो एक दूसरे के लिए ख़ास नहीं हैं लेकिन एक दूसरे के बिना भी कुछ नहीं है दोनों ही संपन्न घरानों से थे। टोपी और इफ्फन की दादी की आपस में खूब बनती थी।
टोपी यूँ तो अच्छा भला था किंतु पढ़ाई- लिखाई में उसका प्रदर्शन कभी अच्छा नहीं रहा जिसके कारण उसकी घर में कोई पूछ-परख नहीं थी। वहीं एक ओर इफ्फन की दादी भी मौलवी घराने में अपनी साख न जमा पाईं और यही कारण था कि उन्हें भी कोई नहीं समझता था। उन दोनों की ही स्थिति एक जैसी रही इसलिए दोनों परस्पर एक- दूसरे को खूब समझते थे। एक दिन टोपी इफ्फन से कहता है कि यदि इफ्फन की दादी, उसकी दादी होती तो अच्छा होता। क्या वे अपनी दादियों की अदली-बदली नहीं कर सकते? इफ्फन कहता है की दादी कहीं भी रहे उससे क्या फरक पड़ता है। वह कहता है कि दादी कहती है, बूढ़े लोग मर जाते हैं। इसपर टोपी कहता कि हमारी दादी नहीं मरेगी। यही सब बातें चल रही होती है कि इफ्फन के घर से दादी के गुजरने की घबर आती है। टोपी और इफ्फन शोक सभा बैठे होते हैं।
घर में लोगों की भीड़ लगी हुई है परंतु फिर भी टोपी को घर खाली लग रहा था। अब उसे समझने वाला कोई न था, वह फिर अकेला हो गया था। स्कूल में भी वो अकेला हो गया था क्यूंकि इस बार भी टोपी उसी कक्षा में बैठा था जिसमें वह पिछले दो सालों से बैठता आ रहा था। उसके सभी दोस्त उससे आगे निकल गए थे और नए लड़के उसकी पढाई में कमज़ोरी का मज़ाक बनाते थे। घर में चुनाव के माहौल के बाद भी जब वह पास हो गया तो उसकी दादी ने बुरी नज़र से बचाते हुए कहा कि कम से कम तीसरे साल में तीसरे दर्जे में तो पास हो गया।
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