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1800-102-2727जयशंकर जी ने इस काव्य में जीवन के प्रति अपने अनुभव का वर्णन किया है। उनके अनुसार यह संसार नश्वर है, क्योंकि प्रत्येक जीवन एक न एक दिन मुरझाई हुई पत्ती-सा टूट कर गिर जाता है। उन्होंने इस काव्य में जीवन के यथार्थ एवं अभाव को दिखाया है कि किस प्रकार हर आदमी कहीं न कहीं किसी चोट के कारण दुखी है, फिर चाहे वो चोट प्रेमिका का न मिलना हो या फिर मित्रों के द्वारा धोखा खाना हो। उनके अनुसार उन्होंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया है, जिससे लोग उनकी आत्मकथा सुनकर उनकी वाह-वाही करेंगे। उन्हें तो लगता है कि अगर उन्होंने अपने जीवन का सत्य सबको बताया तो लोग उनका उपहास उड़ाएंगे और उनके मित्र खुद को दोषी समझेंगे। कवि के अनुसार उनका जीवन सरलता एवं दुर्बलता से भरा हुआ है और उन्होंने जीवन में कोई महान कार्य नहीं किया, उनके अनुसार उनकी जीवन-रूपी गगरी खाली ही रह गई है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रस्तुत पंक्तियों में जहां एक ओर कवि की सादगी का पता चलता है, वहीं दूसरी ओर उनकी महानता भी प्रकट होती है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयशंकर प्रसाद जी का जन्म वाराणसी में सन 1889 में हुआ। ये काशी के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में पढ़ने गए परन्तु विकट परिस्थितियों के कारण इन्हें आठवीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी इत्यादि का अध्ययन किया, इन्हें छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। जीवन की विषम परिस्थितियों में भी इन्होंनें साहित्य की रचना की, इन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध एवं कविता आदि सभी की रचना की। इनकी कामायनी रचना छायावाद की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है जिसके लिए इन्हें मंगलप्रसाद पुरस्कार दिया गया। देश के गौरव का गान तथा देशवासियों को राष्ट्रीय गरिमा का ज्ञान कराना इनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता रही है। इनके काव्य में राष्ट्रीय स्वाभिमान का भाव भरा हुआ है। इनकी रचनाओं में श्रृंगार एवं करुणा रस का सुन्दर प्रयोग मिलता है, सन 1937 में इनकी मृत्यु हो गई थी।
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