बालगोबिन भगत एक रेखाचित्र अर्थात स्केच है। ये साहित्य की आधुनिक विधा है और इस रेखाचित्र के माध्यम से रामवृक्ष बेनीपुरी ने एक ऐसे विलक्षण चरित्र का उद्घाटन किया है जो मनुष्यता ,लोक संस्कृति और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। सन्यास का आधार जीवन के मानवीय सरोकार होते हैं। बालगोबिन भगत इसी आधार पर लेखक को सन्यासी लगते हैं। इस पाठ के माध्यम से उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों पर भी प्रहार किया गया है, साथ ही हमें ग्रामीण जीवन की झाँकी भी दिखाई है। बालगोबिन भगत एक कबीरपंथी गृहस्थ संत थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से ऊपर रही होगी, बाल पके थे, कपड़ों के नाम पर सिर्फ एक लंगोटी और सर्दी के मौसम में ऊपर से एक कंबल ओढ़ लेते थे।
माथे पर रामानंदी चन्दन का टीका और गले में तुलसी की माला पहनते थे। उनके घर में एक बेटा और बहु थे। वे खेतिहर गृहस्थ थे, दो टूक बाते करते, झूठ ,छल प्रपंच से भी दूर रहते थे। कबीर को अपना आदर्श मानते थे और उन्ही के गीतों को गाते। वह अनाज पैदा पर कबीर पंथी मठ में ले जाकर दे आते और वहाँ से जो मिलता उसी से अपना गुजर बसर करते। बालगोबिन भक्त आदमी थे, उनकी भक्ति साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखने को मिला जिस दिन उनका एक मात्र पुत्र मरा। वे रुदन के बदले उत्सव मनाने को कहते हैं। उनका मानना था कि आत्मा-परमात्मा को मिल गयी है। वे आगे एक समाज सुधारक के रूप में सामने आते हैं। अपनी पतोहू द्वारा अपने बेटे को मुखाग्नि दिलाते हैं। श्राद्ध कर्म के बाद ,बहु के भाई को बुलाकर उसकी दूसरी शादी करने को कहते हैं।
बहु के बहुत मिन्नतें करने पर भी वे अटल रहते हैं। इस प्रकार वे विधवा विवाह के समर्थक थे। बालगोबिन की मौत उन्हीं के व्यक्तित्व के अनुरूप शांत रूप से हुई। अपना नित्य क्रिया करने वे गंगा स्नान करने जाते ,बुखार में भी लम्बे उपवास करके, मस्त रहते लेकिन व्रत न छोड़ते। दो जून गीत ,स्नान ध्यान, खेतीबाड़ी अंत समय बीमार पड़कर वे परंपरा को प्राप्त हुए। भोर में उनका गीत न सुनाई पड़ा, लोगों ने जाकर देखा तो बालगोबिन्द स्वर्ग सिधार गए हैं।
लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुज़फ्फरपुर जिले के बेनीपुर गांव में सन् 1889 में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का निधन हो जाने के कारण, आरंभिक वर्ष अभावों, कठिनाइयों और संघर्षों में बीते। दसवीं तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन् 1920 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय रूप से जुड़ गए। कई बार जेल भी गए, उनकी मृत्यु सन् 1968 में हुई। इनके प्रमुख कार्यों में पतितों के देश में, चिता के फूल, अंबपाली, माटी की मूरतें, पैरों में पंख बांधकर, जंजीरें और दीवारें जैसे यात्रा-वृतांत, संस्मरण, नाटक आदि शामिल है।
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