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1800-102-2727'हरिहर काका' कहानी में लेखक बताते हैं कि हरिहर काका से उन्हें खासा लगाव है। हरिहर काका लेखक के ना केवल पड़ोसी हैं, वे उनके पहले दोस्त भी हैं और साथी भी। उनके बीच ऐसा कुछ न था जो छुपा हो। वे दोनों एक दूसरे से हर बात सांझा करते थे। कहानी में लेखक उनके पास ही बैठे हैं, वे मौन है लाख कुछ कहने पर भी वे कुछ नहीं बोल रहे हैं। हरिहर काका एक संपन्न परिवार से थे, वे चार भाई थे और उनके भाई की तरह उनके हिस्से में पंद्रह बीघा ज़मीन आई थी। हरिहर काका ने संतान न होने के कारण दो विवाह किए थे परंतु उनकी दोनों पत्नियां बिना बच्चे जने ही परलोक सिधार गई थीं। वे अब अकेले हैं और घर में उनपर कोई ध्यान न देता। व्यंजन बनाए जाने पर भी उन्हें रूखा-सूखा भोजन दिया जाता है।
ऐसे ही एक दिन अति हो जाने पर वे बिफर पड़े और सबको खूब सुनाया, यह सब गांव के प्रसिद्ध मंदिर ठाकुरबारी का पुजारी देख रहा था सो उसने मौके का फायदा उठाया और काका को ठाकुरबारी ले आया तथा ज़मीन मंदिर के नाम करने को कही जिसपर हरिहर काका की कोई प्रतिक्रिया ना थी। अगले दिन काका अपने घर में थे, समय बीतने के साथ जब पुजारी को ज़मीन हाथ से निकलने का डर सताने लगा तो उसने हथियार बंद आदमियों को काका के घर भेज उनका अपहरण करा लिया और बलपूर्वक उनके अंगूठे के निशान ले लिए। काका के तीनों भाई उन्हें ढूंढते हुए ठाकुरबारी पुलिस के साथ पहुँचे और उन्हें घर ले आए परंतु लालच तो लालच है, काका के भाईयों ने भी वही किया जो मंदिर के पुजारी ने काका से साथ किया था।
कहानी में लेखक कहते हैं कि अब तो हरिहर काका जैसे हताश से हो गए उन्होंने जान लिया कि कोई किसी का सगा नहीं, अब उन्होंने अपनी देखरेख के लिए एक नौकर रख लिया और वे अपने घर से अलग रहते हैं। काका के प्रसंग पूरे गाँव में चर्चित है परंतु वे इसपर कुछ कहते नहीं हैं वे अब अपनी खाट पर पड़े मौन होकर एकटक शून्य को ताकते रहते हैं।
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