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1800-102-2727सुदामा मीलों पैदल चल कर द्वारिका नगरी पहुँचते है । उनकी दयनीय स्थिति देखकर द्वारपाल उन्हें महल के दरवाजे पर ही रोक देता है। श्री कृष्ण सुदामा के आगमन का सुन दौड़े-दौड़े चले आते है और अपने परम मित्र को महल के अंदर ले जाकर उनका खूब आदर-सत्कार करते हैं। श्री कृष्ण सुदामा के पैरो में चुभे हुए कांटों को निकालते वक्त इतने भावुक हो जाते है कि वह सुदामा के पैरों को अपने आंसुओं से धो देते हैं।
आदर-सत्कार करने के बाद कृष्ण सुदामा से उसके बगल में छिपायी हुई पोटली के बारे में पूछते है और मुस्कुराते हुए सुदामा से कहते है कि बचपन में भी जब गुरु माता ने उन्हें चने खाने को दिए थे तो वह सारे चने अकेले ही खा गए थे और आज भी भाभी (सुदामा की पत्नी ) ने उनके लिए जो उपहार भेजा है वह भी उन्हें नहीं दे रहे हैं।
खूब आदर-सत्कार करने के बाद कृष्ण सुदामा को खाली हाथ विदा कर देते हैं। इससे नाराज सुदामा घर लौटते समय कृष्ण के बारे में गलत बातें सोचने लगते हैं। वह सोचते हैं कि बचपन में घर-घर जाकर माखन माँग कर खाने वाला मुझे क्या देगा।
लेकिन जब वह अपने गांव पहुँचते हैं तो उन्हें झोंपड़ी की जगह आलीशान व भव्य महल दिखाई देता है और महल के द्वार पर सारी सुख-सुविधाएं नजर आती है। सच्चाई का एहसास होने पर सुदामा भगवान श्री कृष्ण के प्रति नतमस्तक होकर उनकी महिमा गाने लगते हैं।
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