इस पाठ में एक मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है , जिनके घर अचानक से ही बिन बुलाए मेहमान आ जाते हैं और फिर वह जाने का नाम ही नहीं लेते। भले ही वह बिना बुलाए आए थे परंतु अतिथि भगवान के समान होता है इस बात का ख्याल करके परिवार वालों ने उनकी खूब खातिरदारी की। उनके नाश्ते से लेकर सिगरेट तक का पूरा इंतजाम किया। लेकिन अब घरवालों के सब्र का बांध टूटा जा रहा था, क्योंकि जैसे-जैसे कैलेंडर की तारीख बढ़ती जा रही थी ठीक उसी तरह अतिथि के घर में ठहरने के दिन भी बढ़ते जा रहे थे।
जब घर वालों को भी लगने लगा कि अतिथि चले जाएंगे तो अतिथि ने अपने कपड़े धोने के लिए दे दिए, और इससे घरवालों के अरमानों पर पानी फिर गया। लेखक अपने मन ही मन कह रहे है कि हे अतिथि !अब तो घरवालों का स्वभाव भी तुम्हारे प्रति नम्र से उग्र हो गया है, अब तुम कब हमारे घर को छोड़कर जाओगे? लेकिन हद तो तब हो गई जब अतिथि के कपड़े लॉन्ड्री से साफ हो कर भी आ गए, परंतु उन्होंने जाने का जिक्र भी नहीं किया।
लेखक आगे कहते है कि, “मुझे पता है कि आपको हमारे घर में अच्छा लग रहा है क्योंकि दूसरे के घर में मुफ्त में खाने में सभी को मजा आता है। इसका यह मतलब नहीं कि आप दूसरों के बारे में सोचें ही ना।” अब तो मैं भी इस कथन पर विश्वास करना छोड़ चुका हूँ कि अतिथि देवता होता है ,अब आप ही बता दीजिए अतिथि कि आप कब जाएंगे।
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