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1800-102-2727यह कविता सियारामशरण गुप्त के द्वारा लिखी गई है। यह कविता एक पिता के मन के दुःख व करुणा से भरी हुई है, जो लाख कोशिशों को करने के बावजूद भी अपनी फूल की तरह मासूम बेटी को बचा नहीं पाता है। महामारी का भीषण कहर चारों ओर फैला हुआ था। इसी बीच एक पिता को पूरे समय अपनी बेटी सुखिया की चिंता सताती रहती थी कि कहीं वो भी इसकी चपेट में न आ जाये। जब भी सुखिया घर से बाहर खेलने जाती तो पिता का मन उस समय और भी बेचैन हो जाता कि कहीं उसकी बेटी उसे छोड़ ना जाए। अंत में उसका शक सच में बदल जाता है, सुखिया को तेज बुखार आता है और वह इस दुनिया को छोड़ कर चली जाती है।
अपनी आंखों के सामने अपनी नन्ही सी बेटी को इस दुनिया से अलविदा करते देख पिता अत्यंत दुखी हो जाता है। उसका मन निराशा और हताशा से भर जाता है। उसके लिए यह जीवन अंधकार से भर जाता है और फिर सोचने लगता है कि एक पिता होकर भी वह अपनी मासूम से बच्चे को इस महामारी के कहर से नहीं बचा सका। बस वह यही सोचता रहा कि कैसे भी हो पर उसकी बेटी बच जाए पर आज उसका आंगन सूना हो गया है।
आज उसकी बेटी इस दुनिया में नहीं है, जो एक पल के लिए भी घर में शांत नहीं रहती थी। आज शांति के साथ इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी है। अंत में उस पिता के मन में यही दुख रह जाता है कि वह अपनी बेटी को अंतिम बार गोद में भी नहीं ले सका और इस समाज के छुआछूत के बन्धनों के कारण वह अपनी बेटी से दूर हो गया।
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