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1800-102-2727'श्यामाचरण दुबे' ने इस पाठ में उपभोक्तावाद के आने से हुए बदलावों को दर्शाया है। अब उपभोग ही सुख है, विलासिता की सामग्रियों ने व्यक्ति का चरित्र बदल दिया है, विज्ञापनों ने हमें लुभाने के लिए उत्पादों को एक बनावटी रूप दे दिया है। एक से बढ़कर एक टूथपेस्ट दांतों को मोती जैसा बनाने वाले, मसूड़े मजबूत रखने वाले और माउथवॉश आदि जैसी चीजें बाजार में उपलब्ध है।
उत्कृष्त महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर 30-30 हजार की सौंदर्य सामग्री होना अब आम बात है। उत्पाद प्रतिष्ठा के चिन्ह हैं, समय देखने के लिए लाख डेढ़ लाख की घड़ी, कीमती म्यूजिक सिस्टम, दिखावे के लिए कंप्यूटर, खाने के लिए पांच सितारा होटल, शिक्षा के लिए पांच सितारा स्कूल, आज के समय में प्रतिष्ठा के लिए ही सब होता है। अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में तो मरने से पहले अपने अंतिम संस्कार का प्रबंध भी कर सकते हैं। आपकी कब्र के पास हरी घास होगी, मनचाहे फूल होंगे, संगीत होगा, कुछ समय बाद भारत में भी ऐसा होने लगेगा।
हमारी सांस्कृतिक अस्मिता संकट में है, हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं व पश्चिम संस्कृति के गुलाम बनकर उसे अपना रहे हैं, हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। आलू के चिप्स, शीतल पेय, पिज़्ज़ा-बर्गर खाने से कोई स्वस्थ नहीं रह सकता। दिखावे की इस संस्कृति से हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो जाएगा, भोग की आकांक्षाएं आसमान छू रही हैं, व्यक्तिगत केंद्रता बढ़ रही है। गांधी जी ने कहा था हमें अपनी संस्कृति की बुनियाद पर कायम रहकर बदलाव को अपनाना है। यह उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव हिला रही है जो एक बड़ा खतरा है।
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