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1800-102-2727राहुल सांकृत्यायन जी ने यह कहानी 1929-30 में की गई अपनी तिब्बत यात्रा के वर्णन में लिखी है। उस समय भारतीयों के तिब्बत आने पर रोक थी इसलिए यह यात्रा उन्होंने भिखारी के वेश में की थी। कलिंगपोंग का रास्ता नहीं होने के कारण तिब्बत जाने का एक ही मुख्य रास्ता था जिससे भारत – नेपाल के लोग, व्यापारी व सैनिक तिब्बत जाते थे, तिब्बत में जाति प्रथा या छूआछूत नहीं थी और न ही औरतें पर्दा करती थीं।
वीरान चीनी किले से चलने पर एक आदमी उनसे राहदारी मांगने आया। लेखक ने उसे चिटें दे दीं। सुमति एक मंगोल भिक्षु था उसकी जान-पहचान से उन्हें थोङ्ला में रहने की जगह मिल गई। अब उन्हें 16-17 हजार फीट की ऊंचाई का जंगलों से घिरा खतरनाक इलाका डाँडा पार करना था। यहाँ डकैत लूटपाट के लिए हत्याएं करते थे किंतु भिखारी के वेश में होने के कारण लेखक को लूट की परवाह नहीं थी। अगले दिन चाय पीकर उन्होंने घोड़ों पर डाँडा की चढ़ाई की जहाँ से दक्षिण पूर्व में बिना बर्फ और हरियाली के पहाड़ तथा उत्तर में बर्फीले पहाड़ थे। उतरते समय रास्ता भूल जाने से लेखक को देर हो गई और वे सुमति नाराज हो गए लेकिन जल्दी उनका गुस्सा शांत हो गया।
अब वह पहाड़ों से घिरे विशाल मैदान तिङरी-समाधि-गिरी में थे। आसपास के गांवों में सुमति के कई परिचित थे जिनसे वह मिलना चाहते थे लेकिन लेखक ने उन्हें रोक लिया। अगले दिन वह कड़ी धूप में पीठ पर अपनी चीज़ें लादे चलने लगे, सुमति ने अपने एक और परिचित से मिलने के लिए शेकर विहार की ओर चलने को कहा। तिब्बत की जागीरो का बड़ा हिस्सा मठों के हाथ में था व कुछ में जागीरदार खेती करते थे। लेखक शेकर की खेती के मुखिया न्मसे से मिले, यहाँ एक मंदिर में कंजुर की हस्तलिखित 103 पोथियां रखी थी लेखक इन्हें पढ़ने लगे। दोपहर को उन्होंने अपना सामान पीठ पर उठाया और न्मसे से विदा लेकर चल दिए।
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