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1800-102-2727प्रस्तुत कविता (वाख) ललद्यद द्वारा रचित है। इस कविता में कवित्री ने ईश्वर के प्रति अपने प्रेम और अपनी परम आस्था को प्रकट किया है। उपयुक्त वाखों का अनुवाद मीरा कांत द्वारा किया गया है, इन वाखों के द्वारा कवियित्री कहना चाहती हैं कि ईश्वर की खोज में मंदिर-मस्जिद जाने का कोई तुक नहीं है। ईश्वर की प्राप्ति सिर्फ़ वही कर सकता है जिसने सच्चे हृदय और स्वच्छ मन से उपासना की हो।
पहले वाख में कवित्री ने नाव की तुलना अपने जीवन से करते हुए कहा है कि वे इसे कच्ची डोरी यानी साँसों द्वारा चला रही हैं। वह इस इंतजार में हैं कि प्रभु कब उनकी उपासना सुनें और अपने दर्शन से उनका जीवन तृप्त करें। दूसरे वाख में कवित्री ने भोग-उपासना की कठोर निंदा करते हुए कहा है कि जिस व्यक्ति के भीतर भोग की कामना उपज जाती है, वह दिन-प्रतिदिन स्वार्थी बनता चला जाता है। हमें अपने जीवन में उदारता का मार्ग अपनाना चाहिए और समस्त संसार के प्रति स्नेह भावना रखनी चाहिए।
तीसरे वाख में कवित्री ने अपनी हठ भावना का ज़िक्र किया है जिसके चलते उन्हें ईश्वर का आशीर्वाद नहीं मिल पाया। जब तक उनको अपनी गलती का एहसास हुआ तब तक वो मृत्यु की ओर अग्रसर हो चुकी थीं। अंतिम वाख में कवित्री ने धर्म-भेद को दुत्कारा है और कहा है कि ईश्वर हर एक कण में मौजूद हैं। उन्हें पाने के लिए किसी मंदिर या मस्जिद में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। जरूरत है तो बस अपने मन के भीतर झाँकने की जहाँ ईश्वर अनंत समय से मौजूद हैं।
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