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1800-102-2727प्रस्तुत कविता में कवि ने पहाड़ को किसी किसान के समरूप में माना है । पहाड़ किसी किसान के रूप में निश्चित होकर बैठा हुआ है और उसके सामने रखे हुए सूरज को चिल्लम की तरह पी रहा है।
जिस प्रकार किसान के सर पर साफा रहता है उसी प्रकार पहाड़ के सर पर आकाश बंधा हुआ है। पहाड़ से बहती हुई नदियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है की जैसे सफेद चादर घुटने पर पहाड़ पर बिछी हो। पलास के जंगलों से लाल फूल कवि को अंगीठी के समान प्रतीत हो रहे हैं और दूर किसी दिशा में दूर अंधेरा धीरे-धीरे बढ़ते हुए भेड़ों के समूह जैसा कवि को दिखाई देता है। तभी अचानक मोर के बोलने की आवाज़ सुनाई देती है जैसे लगता है कि किसी ने उस पहाड़ को सुनते हो कहकर पुकारा हो। इस आवाज को सुनकर जैसे एक किसान आश्चर्य में पड़ जाता है जिससे उसकी चिल्लम उलट जाती है और धुआं उठने लगता है। उसी प्रकार पहाड़ के सन्दर्भ में कवि का कहना है कि चिल्लम के रूप में व्यापी ये सूर्य अस्त हो जाता है और धुएं से चारों तरफ अंधकार हो जाता है। इस प्रकार सूर्यास्त के साथ ही शाम रात में बदल जाती हैं ।
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