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1800-102-2727इस पाठ में लिखी गयी चौपाई तुलसीदास जी द्वारा लिखित 'रामचरित मानस' से ली गयी है। इन चौपाइयों में उस समय का वर्णन है जब राम, सीता, लक्ष्मण अयोध्या से विदा लेकर वन की ओर प्रस्थान करते हैं। थोड़ी दूर चलने पर ही सीताजी थक जाती है उनके मांथे से पसीने की बूंदे गिरने लगती है, धूप में जंगल में चलने से उनके होंठ भी प्यास के कारण सूख गए हैं, क्योंकि सीताजी ने कभी-भी अपने जीवन में इतना परिश्रम नहीं किया था। काफ़ी देर से यह सब कुछ सहन करती हुई वे आखिर में श्रीराम जी से यह पूछ ही लेती है कि अब हमें कितनी दूर और चलना है, हम अपनी पर्णकुटी कहाँ पर बनाएंगे सीता जी की ऐसी हालत को देखकर राम जी बहुत दुःखी होते है और सोचने लगते है कि आज उनके कारण महलों में राजकुमारी का जीवन जीने वाली वैदेही को उनके साथ वन में इधर-उधर भटकना पड़ रहा है। इतना सोचकर वे कहते हैं कि चलो यहीं पर थोड़ी देर आराम कर लेते हैं, सीता माँ आँखे बंद करके पेड़ की छाया के नीचे एक पत्थर पर बैठ जाती हैं तथा लक्ष्मण जी वहाँ से पानी लेने के लिये चले जाते हैं और तभी रामजी सीताजी के पैरों में लगे काँटो को अपने हाँथो से हटाना शुरू कर देते हैं। राम जी का अपने प्रति इतना प्रेम और परवाह को देखकर सीताजी बहुत खुश होती हैं। इस पाठ में चुनिंदा चौपाईयाँ हैं, जिनमें राम जी व सीता जी के बीच के प्रेम को दर्शाया गया है ।
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