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1800-102-2727हॉकी के सुप्रसिद्ध खिलाड़ी धनराज पिल्लै जब 35 वर्ष के हो गए तब उनका एक साक्षात्कार विनीता पाण्डेय ने लिया था। इस साक्षात्कार में धनराज जी ने बताया की बचपन मुश्किलों से भरा रहा और वे बहुत गरीब थे। उनके दोनो बड़े भाई हॉकी खेलते थे उन्हीं के चलते उनको भी यह शौक हुआ पर हॉकी-स्टिक खरीदने की हैसियत तक नहीं थी। इसलिए अपने साथियों की स्टिक उधार मांगकर काम चलाता था, वह उन्हें तभी मिलती जब वो खेल चुके होते थे। उन्होंने अपनी जूनियर राष्ट्रीय हॉकी सन् 1985 में मणिपुर में खेली तब वे सिर्फ 16 साल के थे। वे देखने मे दुबले-पतले और छोटे बच्चे जैसा उनका चेहरा था।
दुबली कद-काठी के बावजूद उनका ऐसा दबदबा था कि कोई उनसे भिड़ने की कोशिश नहीं करता था। सीनियर टीम 1986 में उन्हें डाल दिया गया और वे बोरिया-बिस्तर बाँधकर मुंबई चले आये। उन्होंने सोचा कि ओलंपिक के लिए नेशनल कैंप से बुलावा जरूर आएगा पर नहीं आया। वे पढ़ने में एकदम फिसड्डी थे, किसी तरह 10वीं तक पहुँचे मगर उसके आगे का मामला कठिन था। इस बात का संबंध उनके बचपन से जुड़ा हुआ था। वे हमेशा से ही अपने आपको बहुत असुरक्षित महसूस करते थे। उन्होंने अपनी माँ को देखा है कि उन्हें उनके पोषण में कितना संघर्ष करना पड़ा है। उनकी तुनुकमिजाजी के पीछे कई वजह है।
सबसे अधिक प्रेरणा उन्हें उनकी माँ से मिली। माँ ने उन सब में अच्छे संस्कार डालने की पूरी कोशिश की थी। उन्होंने सबसे पहले कृत्रिम घास तब देखी जब राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने के लिए 1988 में वे दिल्ली आये। उन्हें याद था कि किस प्रकार उनके दोस्त उन्हें एक कोने में ले जाकर घास पर खेलना सीखा रहे थे। उन्हें विश्वास ही नहीं रहा था कि विज्ञान इस कदर तरक्की कर सकता है जिससे ऐसी घास उगाई जा सके। उनकी पहली कार एक सेकेण्ड हैंड अरमाड़ा थी जो उन्हें उनके इम्प्लॉयर ने दी थी। तब तक वे काफी नामी खिलाड़ी बन चुका थे मगर जरूरी नहीं की शोहरत पैसा साथ लेकर आए, वे बताते हैं कि कुछ ही रुपये इनाम में मिलते थे ।
वे कहते हैं कि आज खिलाड़ियों को जितना मिलता है उसके मुकाबले में पहले कुछ नहीं मिलता था । 1999 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें पवई में एक फ्लैट दिया था|
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