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1800-102-2727'माटी वाली' कहानी में लेखक 'विद्यासागर नौटियाल' जी ने एक बुर्जुग महिला के संघर्षशील जीवन को अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। टिहरी शहर में बांध के निर्माण के बाद शहर के जलमग्न होने पर सरकार उन्हें दूसरी जगह भेज देती है। कहानी में वहाँ के लोगों द्वारा पुरखों की धरती छोड़ने की व्यथा को चित्रित किया है। माटी वाली एक कमज़ोर, छोटे कद की बुजुर्ग महिला थी वह अपने सिर पर कपड़े का डिल्ला रखकर उसके ऊपर माटी से भरा एक कनस्तर लेकर गली-मोहल्ले में जाकर लाल मिट्टी देने का काम करती थी। यह उसके आजीविका का एकमात्र साधन था।
लाल मिट्टी चूल्हे, घर-आंगन की लिपाई-पुताई के लिए काम आती थी, इसलिए वहां के लोगों को इसकी रोज़ाना जरूरत पड़ती थी। कहानी में एक रोज़ माटी वाली मिट्टी देने के लिए दिन भर गली- मोहल्ले में घूमती रही। उस दिन वो अपने साथ तीन रोटियां भी लेकर आई थी। इन रोटियों को वह अपने बूढ़े पति के लिए संभाल कर रखती है और दिहाड़ी के पैसों से एक पाव प्याज भी खरीद लेती है। वो ये सोचती है कि प्याज तलकर रोटी के साथ देगी तो उसके बूढ़े पति का चेहरा खिल उठेगा। यही सब सोचती हुई वह तेज़ कदमों से घर की ओर चल पड़ती है लेकिन वह घर पहुंचकर देखती है बूढ़ा अपनी माटी को छोड़कर इस संसार से जा चुका था।
समय बिता और वो घड़ी भी आ गई जब शहर में पानी भरने के कारण लोग अपने घर-जमीन छोड़कर दूसरे स्थान पर जा रहे थे। टिहरी बांध के अधिकारी ने माटी वाली से उसके घर का पता पूछा और घर का प्रमाण पत्र लाने को कहता है। माटी वाली अधिकारी से बताती है कि उसके पास ना अपना स्वयं का घर है और ना ज़मीन, उसका जीवन तो दूसरों के घरों में मिट्टी देते-देते ही बीत गया। वह पूछती है कि वह कहाँ जाए, कहाँ रहे..? तब अधिकारी कहते है कि यह बात उसे खुद तय करनी होगी।
ये सुनकर माटीवाली सोचती है की उसके पास जीवन त्यागने के अलावा विकल्प ही क्या है.? परन्तु शहर के साथ श्मशान भी जलमग्न हो गए थे। हताश-आहत माटीवाली अपनी झोपड़ी के बाहर बैठी थी और हर आने-जाने वालों से यही थी, "गरीब आदमी का श्मशान नहीं उजड़ना चाहिए।"
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