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1800-102-2727पिछले दस-पंद्रह वर्षों में हमारी खान-पान की संस्कृति में अत्यधिक बदलाव आया है। इडली-डोसा, बढ़ा-सांभर इस समय केवल दक्षिण भारत तक सीमित नहीं है, उत्तर भारत के भी हर शहर में है और अब तो उत्तर भारत की संस्कृति लगभग पूरे देश में फैल चुकी है। फास्ट फूड का चलन भी कम नहीं हैं । मिठाइयाँ, बर्गर व नूडल्स सभी स्थानों पर खाए जाते। आलू चिप्स, गुजराती ढोकला, गाठियां ,बंगाली रसगुल्ले हर जगह पर समान रूप से मिलने लगे हैं। जबकि पहले यही प्रांत की विशेषता होते थे। ब्रेड जो पहले केवल अमीरों के घरों में ही आती थी अब वह कस्बे तक पहुंच चुकी है, ब्रेड नाश्ते के रूप में लाखों-करोड़ो भारतीय घरों में सेकी-तली जाती है। यह वर्ग पहले ही स्थानीय व्यंजनों के बारे में कम जानकारी रखता था लेकिन अब यह व्यंजनों के बारे में अत्यधिक जानकारी रखता है।
स्थानीय व्यंजन भी तो दिन-प्रतिदिन घटते जा रहे हैं जैसे-छोले व पाव-भाजी इत्यादी। आधुनिक युग में कुछ अन्य चीजें ने भी अपना प्रमुख स्थान बनाए है जैसे मथुरा के पेड़े, आगरे का पेठा व नमकीन इत्यादि । लेकिन उनकी गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं है और दूसरी ओर समय का अभाव के कारण मौसम और ऋतुओं के अनुसार व्यंजन अब बनते ही नहीं। शहरी जीवन की भागमभाग व महंगाई के कारण देशी-विदेशी व्यंजनो को अपनाया जा रहा है जिन्हें पकाने में सुविधा हो। मेवो से बने व्यंजनों का चलन भी हैं। खानपान की एक मिश्रित संस्कृति बना दी गई हैं, खानपान से राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा मिलता। खानपान की दृष्टि से सभी प्रांत एक दूसरे के पास होते जा रहे हैं इससे राष्ट्रीय समता को बढ़ावा मिलता है। इसे और बढ़ाने के लिए हमें चाहिए की हम खाद्य पदार्थों के साथ एक- दूसरे की भाषा बोली व वेशभूषा को भी जानने का प्रयत्न करें।
आधुनिक दुनियां की ओर बढ़ने के साथ ही साथ अपने स्थानीय व्यंजनों को बढ़ावा देना चाहिए । कई व्यंजन जो आसान रूप से मिल जाते थे, वे आज पाँच सितारा होटल में ही मिलते है| उत्तर भारत की पूड़ियाँ, कचौड़ियाँ, जलेबियाँ व सब्जियों से बने समोसे अब बजारों से गायब ही होते जा रहे है। आधुनिकता के समय में हम अपने स्थानीय व्यंजनों को भूलते जा रहे हैं और पश्चिम को जो पदार्थ हैं उन्हें सरसता लिए है अपनाते जा रहे हैं । स्थानीय व्यंजनों का आज के युग में पुनरुद्धार अत्यधिक आवश्यक हो गया है।
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